शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
हम ने भी साथ ही तक़रीर का पहलू बदला
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
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आँसू मिरी आँखों में हैं नाले मिरे लब पर
इस बज़्म में न होश रहेगा ज़रा मुझे
दैर-ओ-हरम को देख लिया ख़ाक भी नहीं
शिफ़ा क्या हो नहीं सकती हमें लेकिन नहीं होती
जिस में सौदा नहीं वो सर ही नहीं
बैठता है हमेशा रिंदों में
यूँही रहा जो बुतों पर निसार दिल मेरा
क्यूँ मैं अब क़ाबिल-ए-जफ़ा न रहा
वो उन का वस्ल में ये कह के मुस्कुरा देना
दर्द-ए-दिल में कमी न हो जाए
रक़ीबों का मुझ से गिला हो रहा है