न मुदारात हमारी न अदू से नफ़रत
न वफ़ा ही तुम्हें आई न जफ़ा ही आई
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वो उन का वस्ल में ये कह के मुस्कुरा देना
हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
नाले में कभी असर न आया
हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
वाइज़ ओ मोहतसिब का जमघट है
यूँही रहा जो बुतों पर निसार दिल मेरा
शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
शिफ़ा क्या हो नहीं सकती हमें लेकिन नहीं होती
गर्दिश-ए-चश्म-ए-यार ने मारा
दैर-ओ-हरम को देख लिया ख़ाक भी नहीं
क्यूँ मैं अब क़ाबिल-ए-जफ़ा न रहा