हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
ईद है और हम को ईद नहीं
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दर्द-ए-दिल में कमी न हो जाए
यूँही रहा जो बुतों पर निसार दिल मेरा
क्यूँ मिरा हाल क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
आँसू मिरी आँखों में हैं नाले मिरे लब पर
जिस में सौदा नहीं वो सर ही नहीं
बैठता है हमेशा रिंदों में
इस बज़्म में न होश रहेगा ज़रा मुझे
हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
पयाम ले के जो पैग़ाम-बर रवाना हुआ
आह करना दिल-ए-हज़ीं न कहीं