दैर-ओ-हरम को देख लिया ख़ाक भी नहीं
बस ऐ तलाश-ए-यार न दर-दर फिरा मुझे
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हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
रक़ीबों का मुझ से गिला हो रहा है
शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
गर्दिश-ए-चश्म-ए-यार ने मारा
बैठता है हमेशा रिंदों में
पयाम ले के जो पैग़ाम-बर रवाना हुआ
आँसू मिरी आँखों में हैं नाले मिरे लब पर
उन को दिमाग़-ए-पुर्सिश-ए-अहल-ए-मेहन कहाँ
कभी हया उन्हें आई कभी ग़ुरूर आया
यूँही रहा जो बुतों पर निसार दिल मेरा
वो उन का वस्ल में ये कह के मुस्कुरा देना
वो जो कर रहे हैं बजा कर रहे हैं