बैठता है हमेशा रिंदों में
कहीं ज़ाहिद वली न हो जाए
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हैं वस्ल में शोख़ी से पाबंद-ए-हया आँखें
यूँही रहा जो बुतों पर निसार दिल मेरा
ख़ून हो जाएँ ख़ाक में मिल जाएँ
उन को दिमाग़-ए-पुर्सिश-ए-अहल-ए-मेहन कहाँ
न मुदारात हमारी न अदू से नफ़रत
शिफ़ा क्या हो नहीं सकती हमें लेकिन नहीं होती
कभी हया उन्हें आई कभी ग़ुरूर आया
पयाम ले के जो पैग़ाम-बर रवाना हुआ
गर्दिश-ए-बख़्त से बढ़ती ही चली जाती हैं
वो जो कर रहे हैं बजा कर रहे हैं
रक़ीबों का मुझ से गिला हो रहा है
दर्द-ए-दिल में कमी न हो जाए