वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
समय की नाव में मेरा सवाल डूब गया
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किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला
न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ
रहीन-ए-आस रही है न महव-ए-यास रही
दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे