वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
वो छुट सके तो मुझे भी गवाह लिख लीजे
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दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
फ़स्ल-ए-गुल कब लुटी नहीं मालूम
हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे
हम भटकते रहे अंधेरे में
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर