उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
फिर भी मिरे सवाल का हक़ देर तक रहा
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उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे
हम भटकते रहे अंधेरे में
किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला
भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे मौला ख़ैर करे
हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे
नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा
इश्क़-विश्क़ ये चाहत-वाहत मन का भुलावा फिर मन भी अपना क्या
ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था
न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन