न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
क़दम कहीं पे हैं पड़ते कहीं पे चलते हैं
Habib Jalib
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यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
उलझ रहे हैं बहुत लोग मेरी शोहरत से
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
जब कूचा-ए-क़ातिल में हम लाए गए होंगे
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
रहीन-ए-आस रही है न महव-ए-यास रही
चाँदी के घरोंदों की जब बात चली होगी
उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे
हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा