लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
मैं जिसे फूँक कर आया वो मिरा घर निकला
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मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
हम भटकते रहे अंधेरे में
वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा
दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
तमन्ना बन गई है माया-ए-इल्ज़ाम क्या होगा
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
रहीन-ए-आस रही है न महव-ए-यास रही
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे मौला ख़ैर करे
हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे