किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
गली में यूँ ही उजालों की आहटें होंगी
Faiz Ahmad Faiz
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मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
न चिलमनों की हसीं सरसराहटें होंगी
भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे मौला ख़ैर करे
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा