हम भटकते रहे अंधेरे में
रौशनी कब हुई नहीं मालूम
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नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
जब कूचा-ए-क़ातिल में हम लाए गए होंगे
ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था