फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
मैं जिसे ढूँढ रहा था मिरे अंदर निकला
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इश्क़-विश्क़ ये चाहत-वाहत मन का भुलावा फिर मन भी अपना क्या
लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
हम चटानों की तरह साहिल पे ढाले जाएँगे
ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
हम भटकते रहे अंधेरे में
चाँदी के घरोंदों की जब बात चली होगी
यूँ तो कहने को तिरी राह का पत्थर निकला
बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे