फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
ये फ़ासला भी तो इंसाँ की एक जस्त लगे
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अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
दिमाग़ अर्श पे है ख़ुद ज़मीं पे चलते हैं
तमन्ना बन गई है माया-ए-इल्ज़ाम क्या होगा
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे
वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे
हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
रहीन-ए-आस रही है न महव-ए-यास रही