चाँदी के घरोंदों की जब बात चली होगी
मिट्टी के खिलौनों से बहलाए गए होंगे
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तंज़ की तेग़ मुझी पर सभी खींचे होंगे
भीतर बसने वाला ख़ुद बाहर की सैर करे मौला ख़ैर करे
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
हम भटकते रहे अंधेरे में
फ़स्ल-ए-गुल कब लुटी नहीं मालूम
हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे