बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
भूक में ज़हरीली रोटी भी मीठी लगती है
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फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
हम भटकते रहे अंधेरे में
उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या
ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था
किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
तंज़ की तेग़ मुझी पर सभी खींचे होंगे
चाँदी के घरोंदों की जब बात चली होगी
फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त