बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
मैं फिर भी सुब्ह के चेहरे पे शाम लिखता हूँ
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तमन्ना बन गई है माया-ए-इल्ज़ाम क्या होगा
मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
तंज़ की तेग़ मुझी पर सभी खींचे होंगे
तो पहले मेरा ही हाल-ए-तबाह लिख लीजे
वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे
ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
न चिलमनों की हसीं सरसराहटें होंगी
इश्क़-विश्क़ ये चाहत-वाहत मन का भुलावा फिर मन भी अपना क्या
ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है