अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
कितने तूफ़ान पलट देता है साहिल तन्हा
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नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा
रहीन-ए-आस रही है न महव-ए-यास रही
किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
उधर वो हाथों के पत्थर बदलते रहते हैं
फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
मुझ को शिकस्तगी का क़लक़ देर तक रहा
न चिलमनों की हसीं सरसराहटें होंगी
तंज़ की तेग़ मुझी पर सभी खींचे होंगे