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उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे - बेकल उत्साही कविता - Darsaal

उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे

उदास काग़ज़ी मौसम में रंग ओ बू रख दे

हर एक फूल के लब पर मिरा लहू रख दे

ज़बान-ए-गुल से चटानें तराशने वाले

निगार ओ नक़्श में आसाइश-ए-नुमू रख दे

सुना है अहल-ए-ख़िरद फिर चमन सजाएँगे

जुनूँ भी जेब ओ गरेबाँ प-ए-रफ़ू रख दे

शफ़क़ है फूल है दीपक है चाँद भी है मगर

उन्हीं के साथ कहीं साग़र ओ सुबू रख दे

चला है जानिब-ए-मय-ख़ाना आज फिर वाइज़

कहीं न जाम पे लब अपने बे-वज़ू रख दे

तमाम शहर को अपनी तरफ़ झुका लूँगा

ग़म-ए-हबीब मिरे सर पे हाथ तू रख दे

गिराँ लगे है जो एहसान दस्त-ए-क़ातिल का

उठ और तेग़ के लब पर रग-ए-गुलू रख दे

ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर

मिरा ही सर मिरे क़ातिल के रू-ब-रू रख दे

समुंदरों ने बुलाया है तुझ को ऐ 'बेकल'

तू अपनी प्यास की सहरा में आबरू रख दे

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