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नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे - बेकल उत्साही कविता - Darsaal

नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे

नज़र की फ़त्ह कभी क़ल्ब की शिकस्त लगे

मिरी हयात पराए का बंद-ओ-बस्त लगे

न वो नुक़ूश न हुस्न-ए-कशिश की बात रही

सनम-फ़रोश भी जैसे ख़ुदा-परस्त लगे

अभी मिला था अभी फिर बिछड़ गया कोई

ये हादसा भी हिकायात-ए-बूद-ओ-हस्त लगे

फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त

ये फ़ासला भी तो इंसाँ की एक जस्त लगे

वहाँ सफ़ीने को पहुँचा दिया है तूफ़ाँ ने

हर एक मौज-ए-बला अब जहाँ से पस्त लगे

तिरे ही ग़म ने किसी सम्त देखने न दिया

कि अब हुजूम-ए-तमन्ना भी तंग-दस्त लगे

जो तेरी बज़्म से 'बेकल' चला तो होश में था

अजीब बात है अब वो भी मस्त मस्त लगे

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