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नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा - बेकल उत्साही कविता - Darsaal

नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा

नए ज़माने में अब ये कमाल होने लगा

कि क़त्ल कर के भी क़ातिल निहाल होने लगा

मिरी तबाही का बाइस जो है ज़माने से

उसी को अब मिरा काहे ख़याल होने लगा

हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या

जो मेरा हाल था वो तेरा हाल होने लगा

शब-ए-फ़िराक़ वो कैसा था जश्न यादों का

कि जिस का ज़िक्र भी बाद-ए-विसाल होने लगा

जो रंज-ओ-ग़म में मिरे साथ साथ था अब तक

उसे भी मेरी ख़ुशी से मलाल होने लगा

जहाँ पे मंज़र-ए-जल्वा था सिर्फ़ वहम ओ गुमाँ

वहीं पे जलसा-ए-ज़ोहरा-जमाल होने लगा

तुम्हारे क़द्र से अगर बढ़ रही हो परछाईं

समझ लो धूप का वक़्त-ए-ज़वाल होने लगा

न ख़ुद को बेचा न कोई ख़ुशामदें की हैं

तो कैसे तुम पे ये 'बेकल' सवाल होने लगा

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