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मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ - बेकल उत्साही कविता - Darsaal

मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ

मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ

तो पहले एक ग़ज़ल तेरे नाम लिखता हूँ

बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन

मैं फिर भी सुब्ह के चेहरे पे शाम लिखता हूँ

चले तो टूटें चट्टानें रुके तो आग लगे

शमीम-ए-गुल को तो नाज़ुक-ख़िराम लिखता हूँ

घटाएँ झूम के बरसीं झुलस गई खेती

ये हादसा है ब-सद-ए-एहतिराम लिखता हूँ

ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है

मैं अपने अहद के क़िस्से तमाम लिखता हूँ

चमन को औरों ने लिक्खा है मय-कदा बर दोश

मैं फूल फूल को आतिश-ब-जाम लिखता हूँ

न राब्ता न कोई रब्त ही रहा 'बेकल'

उस अजनबी को मगर मैं सलाम लिखता हूँ

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