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ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था - बेकल उत्साही कविता - Darsaal

ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था

ख़ुद अपने जुर्म का मुजरिम को ए'तिराफ़ न था

मगर ये जज़्बा ब-नाम-ए-जुनूँ मुआफ़ न था

पिघल तो सकता है लोहा निगाह-ए-अज़्म तो हो

ये पहले क़ैद की दीवार में शिगाफ़ न था

हसद की गर्द थीं बुग़्ज़ और नफ़रत की

मिरे वजूद पे ऐसा कोई ग़िलाफ़ न था

उलझ रहे हैं बहुत लोग मेरी शोहरत से

किसी को यूँ तो कोई मुझ से इख़्तिलाफ़ न था

तिरे जमाल से महफ़िल में अब सुकून सा है

वगरना ज़ेहन किसी का किसी से साफ़ न था

मिरा नसीब कि कश्ती किनारे लग न सकी

हवा का झोंका तो वैसे मिरे ख़िलाफ़ न था

जदीद लहजा ये अंदाज़ किस लिए 'बेकल'

तुझे तो हुस्न-ए-रिवायत से इंहिराफ़ न था

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