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तुझ पर मिरी मोहब्बत क़ुर्बान हो न जाए - बहज़ाद लखनवी कविता - Darsaal

तुझ पर मिरी मोहब्बत क़ुर्बान हो न जाए

तुझ पर मिरी मोहब्बत क़ुर्बान हो न जाए

ये कुफ़्र बढ़ते बढ़ते ईमान हो न जाए

अल्लाह री बे-नक़ाबी उस जान-ए-मुद्दआ की

मेरी निगाह-ए-हसरत हैरान हो न जाए

मेरी तरफ़ न देखो अपनी नज़र को रोको

दुनिया-ए-आशिक़ी में हैजान हो न जाए

पलकों पे रुक गया है आ कर जो एक आँसू

ये क़तरा बढ़ते बढ़ते तूफ़ान हो न जाए

हद्द-ए-सितम तो है भी हद्द-ए-वफ़ा नहीं है

ज़ालिम तिरा सितम भी एहसान हो न जाए

होती नहीं है वक़अत होती नहीं है इज़्ज़त

जब तक कि कोई इंसाँ इंसान हो न जाए

उस वक़्त तक मुकम्मल होता नहीं है कोई

जब तक कि ख़ुद को अपनी पहचान हो न जाए

'बहज़ाद' इस लिए मैं कहता नहीं हूँ दिल की

डरता हूँ सुन के दुनिया हैरान हो न जाए

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