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है ख़िरद-मंदी यही बा-होश दीवाना रहे - बहज़ाद लखनवी कविता - Darsaal

है ख़िरद-मंदी यही बा-होश दीवाना रहे

है ख़िरद-मंदी यही बा-होश दीवाना रहे

है वही अपना कि जो अपने से बेगाना रहे

कुफ़्र से ये इल्तिजाएँ कर रहा हूँ बार बार

जाऊँ तो का'बा मगर रुख़ सू-ए-मय-ख़ाना रहे

शम-ए-सोज़ाँ कुछ ख़बर भी है तुझे ओ मस्त-ए-ग़म

हुस्न-ए-महफ़िल है जभी जब तक कि परवाना रहे

ज़ख़्म-ए-दिल ऐ ज़ख़्म-ए-दिल नासूर क्यूँ बनता नहीं

लुत्फ़ तो जब है कि अफ़्साने में अफ़्साना रहे

हम को वाइज़ का भी दिल रखना है साक़ी का भी दिल

हम तो तौबा कर के भी पाबंद-ए-मय-ख़ाना रहे

आख़िरश कब तक रहेंगी हुस्न की नादानियाँ

हुस्न से पूछो कि कब तक इश्क़ दीवाना रहे

फ़ैज़-ए-राह-ए-इश्क़ है या फ़ैज़-ए-जज़्ब-ए-इश्क़ है

हम तो मंज़िल पा के भी मंज़िल से बेगाना रहे

मय-कदे में हम दुआएँ कर रहे हैं बार बार

इस तरफ़ भी चश्म-ए-मस्त-ए-पीर-ए-मय-ख़ाना रहे

आज तो साक़ी से ये 'बहज़ाद' ने बाँधा है अहद

लब पे तौबा हो मगर हाथों में पैमाना रहे

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