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इक बेवफ़ा को दर्द का दरमाँ बना लिया - बहज़ाद लखनवी कविता - Darsaal

इक बेवफ़ा को दर्द का दरमाँ बना लिया

इक बेवफ़ा को दर्द का दरमाँ बना लिया

हम ने तो आह कुफ़्र को ईमाँ बना लिया

दिल की ख़लिश-पसंदियाँ हैं कि अल्लाह की पनाह

तीर-ए-नज़र को जान-ए-रग-ए-जाँ बना लिया

मुझ को ख़बर नहीं मिरे दिल को ख़बर नहीं

किस की नज़र ने बंदा-ए-एहसाँ बना लिया

महसूस कर के हम ने मोहब्बत का हर अलम

ख़्वाब-ए-सुबुक को ख़्वाब-ए-परेशाँ बना लिया

दस्त-ए-जुनूँ की उक़्दा-कुशाई तो देखिए

दामन को बे-नियाज़ गरेबाँ बना लिया

तस्कीन-ए-दिल की हम ने भी परवाह छोड़ दी

हर मौज-ए-ग़म को हासिल-ए-तूफ़ाँ बना लिया

जब उन का नाम आ गया हम मुज़्तरिब हुए

आहों को अपनी ज़ीस्त का उनवाँ बना लिया

हम ने तो अपने दिल में वो ग़म हो कि हो अलम

जो कोई आ गया उसे मेहमाँ बना लिया

आईना देखने की ज़रूरत न थी कोई

अपने को ख़ुद ही आप ने हैराँ बना लिया

इक बे-वफ़ा पे कर के तसद्दुक़ दिल-ओ-जिगर

'बहज़ाद' हम ने ख़ुद को परेशाँ बना लिया

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