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ये दिल जो मुज़्तरिब रहता बहुत है - बेदिल हैदरी कविता - Darsaal

ये दिल जो मुज़्तरिब रहता बहुत है

ये दिल जो मुज़्तरिब रहता बहुत है

कोई इस दश्त में तड़पा बहुत है

कोई इस रात को ढलने से रोके

मिरा क़िस्सा अभी रहता बहुत है

बहुत ही तंग हूँ आँखों के हाथों

ये दरिया आज कल बहता बहुत है

ब-वक़्त-ए-शाम इकट्ठे डूबते हैं

दिल और सूरज में याराना बहुत है

बहुत ही रास है सहरा लहू को

कि सहरा में लहू उगता बहुत है

मुबारक उस को उस के तर निवाले

मुझे सूखा हुआ टुकड़ा बहुत है

बयाज़ इस वास्ते ख़ाली है मेरी

मुझे अफ़्लास ने बेचा बहुत है

बुतों का नाम भी पढ़ता है 'बे-दिल'

ख़ुदा का नाम भी लेता बहुत है

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