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रहने दे रतजगों में परेशाँ मज़ीद उसे - बेदिल हैदरी कविता - Darsaal

रहने दे रतजगों में परेशाँ मज़ीद उसे

रहने दे रतजगों में परेशाँ मज़ीद उसे

लगने दे एक और भी ज़र्ब-ए-शदीद उसे

जी हाँ वो इक चराग़ जो सूरज था रात का

तारीकियों ने मिल के किया है शहीद उसे

फ़ाक़े न झुग्गियों से सड़क पर निकल पड़ें

आफ़त में डाल दे न ये बोहरान-ए-ईद उसे

फ़र्त-ए-ख़ुशी से वो कहीं आँखें न फोड़ ले

आराम से सुनाओ सहर की नवीद उसे

हर-चंद अपने क़त्ल में शामिल वो ख़ुद भी था

फिर भी गवाह मिल न सके चश्म-दीद उसे

बाज़ार अगर है गर्म तो कर्तब कोई दिखा

सब गाहकों से आँख बचा कर ख़रीद उसे

मुद्दत से पी नहीं है तो फिर फ़ाएदा उठा

वो चल के आ गया है तो कर ले कशीद उसे

मश्कूक अगर है ख़त की लिखाई तो क्या हुआ

जाली बना के भेज दे तू भी रसीद उसे

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