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तेरी उल्फ़त शोबदा-पर्वाज़ है - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

तेरी उल्फ़त शोबदा-पर्वाज़ है

तेरी उल्फ़त शोबदा-पर्वाज़ है

आरज़ू गर है तमन्ना-साज़ है

फिर हदीस-ए-इश्क़ का आग़ाज़ है

आज फिर गोया ज़बान-ए-राज़ है

गंज-ए-असरार-ए-अज़ल है बाग़-ए-दहर

पत्ता पत्ता दफ़्तर-ए-सद-राज़ है

जान दे दी उन पे और ज़िंदा रहे

अपने मरने का नया अंदाज़ है

होशियार ऐ नावक-अफ़गन होश्यार

ताइर-ए-जाँ माइल-ए-परवाज़ है

रुख़्सत ऐ अक़्ल-ओ-ख़िरद होश-ओ-हवास

शौक़-ए-वस्ल-ए-यार का आग़ाज़ है

मेरे नाले सुन के फ़रमाते हैं वो

ये उसी की दुख-भरी आवाज़ है

जिस को सब समझे हैं दश्त-ए-कर्बला

वो तो मैदान-ए-नियाज़-ओ-नाज़ है

ज़र्रे ज़र्रे में अयाँ होने के ब'अद

आज तक राज़-ए-हक़ीक़त राज़ है

आप जाँचें मजमा-ए-उश्शाक़ में

उन में 'बेदम' सा कोई जाँ-बाज़ है

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