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क़स्र-ए-जानाँ तक रसाई हो किसी तदबीर से - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

क़स्र-ए-जानाँ तक रसाई हो किसी तदबीर से

क़स्र-ए-जानाँ तक रसाई हो किसी तदबीर से

ताइर-ए-जाँ के लिए पर माँग लूँ मैं तीर से

उन को क्या धोका हुआ मुझ ना-तवाँ को देख

मेरी सूरत क्यूँ मिलाते हैं मिरी तस्वीर से

गालियाँ दे कर बजाए क़ुम के ऐ रश्क-ए-मसीह

आप ने मुर्दे जिलाए हैं नई तदबीर से

सदक़े ऐ क़ातिल तिरे मुझ तिश्ना-ए-दीदार की

तिश्नगी जाती रही अाब-ए-दम-ए-शमशीर से

इश्वे से ग़म्ज़े से शोख़ी से अदा से नाज़ से

मिटने वाला हूँ मिटा दीजे किसी तदबीर से

इक सवाल-ए-वस्ल पर दो दो सज़ाएँ दीं मुझे

तेग़ से काटा ज़बाँ को सी दिए लब तीर से

कुछ न हो ऐ इंक़िलाब-ए-आसमाँ इतना तो हो

ग़ैर की क़िस्मत बदल जाए मेरी तक़दीर से

ज़िंदगी से क्यूँ न हो नफ़रत कि महव-ए-ज़ुल्फ़ हूँ

क़ैद-ए-हस्ती मुझ को 'बेदम' कम नहीं ज़ंजीर से

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