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मुझ से छुप कर मिरे अरमानों को बर्बाद न कर - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

मुझ से छुप कर मिरे अरमानों को बर्बाद न कर

मुझ से छुप कर मिरे अरमानों को बर्बाद न कर

दाद-ख़्वाही के लिए आया हूँ बेदाद न कर

देख मिट जाएगा हस्ती से गुज़र जाएगा

दिल-ए-ना-आक़ेबत-अंदेश उन्हें याद न कर

आ गया अब तो मुझे लुत्फ़-ए-असीरी सय्याद

ज़ब्ह कर डाल मगर क़ैद से आज़ाद न कर

जिस पे मरता हूँ उसे देख तो लूँ जी भर के

इतनी जल्दी तू मिरे क़त्ल में जल्लाद न कर

आप तो ज़ुल्म लगातार किए जाते हैं

मुझ से ताकीद पे ताकीद है फ़रियाद न कर

जल्वा दिखला के मिरा लूट लिया सब्र-ओ-क़रार

फिर ये कहते हैं कि तू नाला-ओ-फ़रियाद न कर

आप ही अपनी जफ़ाओं पे पशेमान हैं वो

उन को महजूब ज़ियादा दिल-ए-नाशाद न कर

ऐ सबा कूचा-ए-जानाँ में पड़ा रहने दे

ख़ाक हम ख़ाक-नशीनों की तो बर्बाद न कर

हम तो जब समझें कि हाँ दिल पे है क़ाबू 'बेदम'

वो तुझे भूल गए तो भी उन्हें याद न कर

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