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में ग़श में हूँ मुझे इतना नहीं होश - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

में ग़श में हूँ मुझे इतना नहीं होश

में ग़श में हूँ मुझे इतना नहीं होश

तसव्वुर है तिरा या तू हम-आग़ोश

जो नालों की कभी वहशत ने ठानी

पुकारा ज़ब्त बस ख़ामोश ख़ामोश

किसे हो इम्तियाज़-ए-जल्वा-ए-यार

हमें तो आप ही अपना नहीं होश

उठा रक्खा है इक तूफ़ान तू ने

अरे क़तरे तिरा अल्लाह-रे जोश

मैं ऐसी याद के क़ुर्बान जाऊँ

किया जिस ने दो-आलम को फ़रामोश

है बेगानों से ख़ाली ख़ल्वत-ए-राज़

चले जाएँ न अब आएँ मिरे होश

करो रिंदो गुनाह-ए-मय-परस्ती

कि साक़ी है अता-पाश ओ ख़ता-पोश

तिरे जल्वे को मूसा देखते क्या

नक़ाब उठने से पहले उड़ गए होश

करम भी उस का मुझ पर है सितम भी

कि पहलू में है ज़ालिम और रू-पोश

पियो तो ख़ुम के ख़ुम पी जाओ 'बेदम'

अरे मय-नोश हो तुम या बला-नोश

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