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क्या गिला इस का जो मेरा दिल गया - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

क्या गिला इस का जो मेरा दिल गया

क्या गिला इस का जो मेरा दिल गया

मिल गए तुम मुझ को सब कुछ मिल गया

जिस को आँखें ढूँढती थीं पा गईं

दिल को जिस की जुस्तुजू थी मिल गया

इस गुल-ए-रअना ने हँस कर बात की

ग़ुंचा-ए-ख़ातिर हमारा खिल गया

छोड़ कर तू उस को ग़ैरों से मिला

ख़ाक में जो तेरी ख़ातिर मिल गया

बन गई हर मौज इक मौज-ए-सराब

तिश्ना-लब जब मैं लब-ए-साहिल गया

अर्ज़-ए-हाल-ए-चाक-ए-दिल क्यूँकर करूँ

सामने उन के गया मुँह सिल गया

ग़ैर ही क्या बे-रुख़ी से आप की

आज 'बेदम' भी बहुत बे-दिल गया

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