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खींची है तसव्वुर में तस्वीर-ए-हम-आग़ोशी - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

खींची है तसव्वुर में तस्वीर-ए-हम-आग़ोशी

खींची है तसव्वुर में तस्वीर-ए-हम-आग़ोशी

अब होश न आने दे मुझ को मिरी बे-होशी

पा जाना है खो जाना खो जाना है पा जाना

बे-होशी है हुश्यारी हुश्यारी है बे-होशी

मैं साज़-ए-हक़ीक़त हूँ दम-साज़-ए-हक़ीक़त हूँ

ख़ामोशी है गोयाई गोयाई है ख़ामोशी

असरार-ए-मोहब्बत का इज़हार है ना-मुम्किन

टूटा है न टूटेगा क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-ख़ामोशी

हर दिल में तजल्ली है उन के रुख़-ए-रौशन की

ख़ुर्शीद से हासिल है ज़र्रों को हम-आग़ोशी

जो सुनता हूँ सुनता हूँ मैं अपनी ख़मोशी से

जो कहती है कहती है मुझ से मिरी ख़ामोशी

ये हुस्न-फ़रोशी की दूकान है या चिलमन

नज़्ज़ारा का नज़्ज़ारा रूपोशी की रूपोशी

याँ ख़ाक का ज़र्रा भी लग़्ज़िश से नहीं ख़ाली

मय-ख़ाना-ए-दुनिया है या आलम-ए-बे-होशी

हाँ हाँ मिरे इस्याँ का पर्दा नहीं खुलने का

हाँ हाँ तिरी रहमत का है काम ख़ता-पोशी

इस पर्दे में पोशीदा लैला-ए-दो-आलम है

बे-वज्ह नहीं 'बेदम' काबे की सियह-पोशी

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