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काश मिरी जबीन-ए-शौक़ सज्दों से सरफ़राज़ हो - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

काश मिरी जबीन-ए-शौक़ सज्दों से सरफ़राज़ हो

काश मिरी जबीन-ए-शौक़ सज्दों से सरफ़राज़ हो

यार की ख़ाक-ए-आस्ताँ ताज-ए-सर-ए-नियाज़ हो

हम को भी पाएमाल कर उम्र तिरी दराज़ हो

मस्त-ए-ख़िराम-ए-नाज़ इधर मश्क़-ए-ख़िराम-ए-नाज़ हो

चश्म-ए-हक़ीक़त-ए-आश्ना देखे जो हुस्न की किताब

दफ़्तर-ए-सद-हदीस-ए-राज़ हर वरक़-ए-मजाज़ हो

सामने रू-ए-यार हो सज्दे में हो सर-ए-नियाज़

यूँही हरीम-ए-नाज़ में आठों पहर नमाज़ हो

उस के हरीम-ए-नाज़ में अक़्ल-ओ-ख़िरद को दख़्ल क्या

जिस की गली की ख़ाक का ज़र्रा जहान-ए-राज़ हो

तेरी गली में पा के जा जाए कहाँ तिरा गदा

क्यूँ न वो बे-नियाज़ हो तुझ से जिसे नियाज़ हो

'बेदम'-ए-ख़स्ता हिज्र में बन गई जान-ए-ज़ार पर

जिस ने दिया है दर्द-ए-दिल काश वो चारासाज़ हो

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