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दिल लिया जान ली नहीं जाती - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

दिल लिया जान ली नहीं जाती

दिल लिया जान ली नहीं जाती

आप की दिल-लगी नहीं जाती

सब ने ग़ुर्बत में मुझ को छोड़ दिया

इक मिरी बेकसी नहीं जाती

किए कह दूँ कि ग़ैर से मिलिए

अन-कही तो कही नहीं जाती

ख़ुद कहानी फ़िराक़ की छेड़ी

ख़ुद कहा बस सुनी नहीं जाती

ख़ुश्क दिखलाती है ज़बाँ तलवार

क्यूँ मिरा ख़ून पी नहीं जाती

लाखों अरमान देने वालों से

एक तस्कीन दी नहीं जाती

जान जाती है मेरी जाने दो

बात तो आप की नहीं जाती

तुम कहोगे जो रोऊँ फ़ुर्क़त में

कि मुसीबत सही नहीं जाती

उस के होते ख़ुदी से पाक हूँ मैं

ख़ूब है बे-ख़ुदी नहीं जाती

पी थी 'बेदम' अज़ल में कैसी शराब

आज तक बे-ख़ुदी नहीं जाती

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