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अपनी हस्ती का अगर हुस्न नुमायाँ हो जाए - बेदम शाह वारसी कविता - Darsaal

अपनी हस्ती का अगर हुस्न नुमायाँ हो जाए

अपनी हस्ती का अगर हुस्न नुमायाँ हो जाए

आदमी कसरत-ए-अनवार से हैराँ हो जाए

तुम जो चाहो तो मिरे दर्द का दरमाँ हो जाए

वर्ना मुश्किल है कि मुश्किल मिरी आसाँ हो जाए

ओ नमक-पाश तुझे अपनी मलाहत की क़सम

बात तो जब है कि हर ज़ख़्म नमकदाँ हो जाए

देने वाले तुझे देना है तो इतना दे दे

कि मुझे शिकवा-ए-कोताही-ए-दामाँ हो जाए

उस सियह-बख़्त की रातें भी कोई रातें हैं

ख़्वाब-ए-राहत भी जिसे ख़्वाब-ए-परेशाँ हो जाए

सीना-ए-शिबली-ओ-मंसूर तो फूँका तू ने

इस तरफ़ भी करम ऐ जुम्बिश-ए-दामाँ हो जाए

आख़िरी साँस बने ज़मज़मा-ए-हू अपना

साज़-ए-मिज़राब-ए-फ़ना तार-ए-रग-ए-जाँ हो जाए

तू जो असरार-ए-हक़ीक़त कहीं ज़ाहिर कर दे

अभी 'बेदम' रसन-ओ-दार का सामाँ हो जाए

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