रौनक़ फ़रोग़-ए-दर्द से कुछ अंजुमन में है
रौनक़ फ़रोग़-ए-दर्द से कुछ अंजुमन में है
ख़ून-ए-जिगर ग़रीब का हर बाँकपन में है
दीवाना ज़िंदगानी का देता है यूँ सुबूत
बाहर लहद से है कभी ख़ूनीं कफ़न में है
दिल के लहू से रूह की होती है परवरिश
मेराज आगही की वफ़ूर-ए-मेहन में है
हर बूँद नोक-ए-किल्क की देती है दर्स-ए-होश
कौनैन का सुराग़ भी बत्न-ए-सुख़न में है
दो यक नफ़स है ख़ेमा-ए-गुल का फ़रेब-रंग
इबरत-फ़रोश ख़ार भी सेहन-ए-चमन में है
आफ़ाक़-साज़ मज़हब-ए-ईसार फिर से ढूँड
इक ला'ल-ए-शब-चराग़ भी ताक़-ए-कुहन में है
यारो सुख़न बरा-ए-सुख़न मुतलक़न अबस
पैग़ाम-ए-हस्त-ओ-बूद कहीं फ़िक्र-ओ-फ़न में है
इख़्लास दिल का रहमत-ए-बारी से कर तलब
रौशन चराग़-ए-अद्ल कहाँ अंजुमन में है
बू-ज़र का फ़क़्र हज़रत-ए-फ़ारूक़ का मिज़ाज
असनाम-साज़ क़ौम के शेख़-ए-ज़मन में है
सौदा-गरी से माना कि हासिल है कुछ वक़ार
सामान-ए-मुफ़सिदात भी तज़ईन-ए-तन में है
अस्र-ए-रवाँ के लोग हैं आवारगी-पसंद
फ़ित्ना भी हिर्स-ओ-आज़ का ख़िज़्र-ए-ज़मन में है
शबनम से पंखुड़ी भी सुलगती है फूल की
नैरंगी-ए-ख़िज़ाँ भी बहार-ए-चमन में है
फ़ैज़ान-ए-इर्तिक़ा से जनाज़ा ख़ुलूस का
ख़ैर-उल-उमम के दोश पे शहर-ए-ज़मन में है
जम्हूरियत भी तुरफ़ा-तमाशा का किस क़दर
लौह-ओ-क़लम की जान यद-ए-अहरमन में है
इस इफ़्तिरा पे दीजिए कुछ मुफ़्तरी को दाद
जन्नत अगर कहीं है तो मेरे वतन में है
जाने किसे नसीब हो 'बेबाक' आगही
नाक़िद जदीद दौर का तख़मीन-ओ-ज़न में है
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