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जिगर-गुदाज़ मआ'नी समझ सको तो कहूँ - बेबाक भोजपुरी कविता - Darsaal

जिगर-गुदाज़ मआ'नी समझ सको तो कहूँ

जिगर-गुदाज़ मआ'नी समझ सको तो कहूँ

क़ज़ा-ओ-क़द्र-ए-ज़मानी समझ सको तो कहूँ

वजूद आइना-ख़ानों का है फ़ना-अंजाम

क़ज़ा-ए-चर्ख़-ए-दोख़ानी समझ सको तो कहूँ

जबीन-ए-वक़्त की तहरीर में निहाँ क्या है

ख़िरद की ज़हर-फ़िशानी समझ सको तो कहूँ

क़ज़ा की गोद में है हसरतों का गहवारा

ज़बान-ए-रम्ज़-ए-निहानी समझ सको तो कहूँ

बशर के दीदा-ए-दिल पर हिजाब-ए-ग़फ़लत है

फ़रेब-ए-हुस्न-ओ-जवानी समझ सको तो कहूँ

जहाज़-ए-उम्र न जाने रुके कहाँ जा कर

मुहीत-ए-दिल की रवानी समझ सको तो कहूँ

ख़ुदा के बा'द बशर का मक़ाम अज़्मत है

तुम अपनी कुछ भी कहानी समझ सको तो कहूँ

ख़िज़ाँ-बदोश चमन में बहार आई है

निज़ाम-ए-आलम-ए-फ़ानी समझ सको तो कहूँ

वो हर्फ़-ए-राज़ जो लब तक किसी के आ न सका

हकीम-ए-राज़ की बानी समझ सको तो कहूँ

हयात-ए-चंद-नफ़स पर तफ़ाख़ुर-ए-बे-जा

हर एक चीज़ है फ़ानी समझ सको तो कहूँ

मुक़ामिरान-ए-बिसात-ए-हवस अगर तुम कुछ

हदीस-फ़क़्र ज़बानी समझ सको तो कहूँ

सफ़ीना अक़्ल का 'बेबाक' ग़र्क़ है मुतलक़

है कितना ज़र्फ़ में पानी समझ सको तो कहूँ

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