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फ़स्ल-ए-बहार जाने ये क्या गुल कतर गई - बेबाक भोजपुरी कविता - Darsaal

फ़स्ल-ए-बहार जाने ये क्या गुल कतर गई

फ़स्ल-ए-बहार जाने ये क्या गुल कतर गई

साग़र गुलों का ख़ून-ए-अनादिल से भर गई

गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद में आरिफ़ की आगही

औराक़-ए-गुल पे सूरत-ए-शबनम बिखर गई

हासिल हुज़ूर-ए-हुस्न की सर-मस्तियाँ कहाँ

तहज़ीब-ए-अस्र लौट के जाने किधर गई

दानिशवरो वो रम्ज़ समझने की चीज़ थी

नज़र-ए-वफ़ा-शिआर ख़ता जो भी कर गई

ख़ुश-बख़्त ग़र्क़ बहर-ए-तकल्लुफ़ में हो गए

टूटे हुए नसीब की कश्ती गुज़र गई

गुलशन के दीदा-वर ही तह-ए-दाम आ गए

जादू जगा के ख़ूब नसीम-ए-सहर गई

शाइस्तगी ने ख़ैर का पुतला बना दिया

बर्क़-ए-फ़ना भी हुस्न-ए-अदा पे ठहर गई

अल्मास-ओ-लअ'ल बिक गए मुतलक़ ख़ज़फ़ के मोल

अब आबरू-ए-हिकमत-ए-साहब-हुनर गई

साक़ी को ख़ास मसनद-ए-गुल पर जो आई नींद

सर-मस्ती-ए-शराब-ए-ग़म-ए-मो'तबर गई

इतनी थी इक नफ़स के तबस्सुम के दास्ताँ

नाज़ुक कली थी फूल बनी और बिखर गई

यूँ तो सुख़न की सूरत-ए-मअ'नी थी दिल-पज़ीर

ख़ून-ए-जिगर से और हक़ीक़त निखर गई

तय हो सके ख़िरद से न हस्ती के मरहले

नाकामियों की आह मिरी काम कर गई

'बेबाक' बे-कसी के है जुज़ कौन दस्त-गीर!

मौज-ए-नफ़स हयात की जाने किधर गई

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