बख़्त क्या जाने भला या कि बुरा होता है
बख़्त क्या जाने भला या कि बुरा होता है
कैफ़-ओ-ग़म ज़र्फ़ के लाएक़ ही अता होता है
ये वो बाज़ार-ए-कशाकश है जहाँ पर इंसाँ
हस्ब-ए-तौफ़ीक़ ख़रीदार-ए-हया होता है
मुद्दतों रहता है जब आदमी ज़हमत-ब-कनार
राज़-ए-सर-बस्ता महाकात का वा होता है
दिल है दोज़ख़ में कुछ इस तरह तबस्सुम-बर-लब
जैसे काँटों में कोई फूल खिला होता है
बे-तलब रोज़ अता करता है काँटों को लहू
कितना ईसार-पसंद आबला-पा होता है
सब को पैराहन-ए-गुल की है तमन्ना लेकिन
हर नफ़स ऐश का पैग़ाम-ए-क़ज़ा होता है
आतिश-ए-बत्न में गल जाते हैं ख़ुद-काम शुयूख़
साहब-ए-दर्द परस्तार-ए-ख़ुदा होता है
तेरी रहमत से है महफ़ूज़ अनिश्शर बंदा
वर्ना इंसान तो तस्वीर-ए-ख़ता होता है
पहलू-ए-ज़र्रा में पिन्हाँ है जहान-ए-मा'नी
रेशा-ए-संग में आईना-सरा होता है
ऐन ग़ुर्बत में निखरता है ख़ुदी का जौहर
नख़्ल-ए-औसाफ़ लहू पी के हरा होता है
सब्र की शाख़ में लगता है वो मीठा मेवा
सब से दुनिया में अलग जिस का मज़ा होता है
हम फ़क़ीरों को सहारे की ज़रूरत क्या है
बे सहारों का सहारा तो ख़ुदा होता है
तेरा हर शेर है 'बेबाक' अमल की दावत
या कोई मूसी-ए-इमराँ का असा होता है
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