वही उठाए मुझे जो बने मिरा मज़दूर
तुम्हारे कूचे में बैठा हूँ मैं मकाँ की तरह
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अदाएँ ता-अबद बिखरी पड़ी हैं
पार दरिया-ए-शहादत से उतर जाते हैं सर
सच है कि जहाँ में सैर क्या क्या देखी
वो पोशीदा रखते हैं अपना तअ'ल्लुक़
ये मैं कहूँगा फ़लक पे जा कर ज़मीं से आया हूँ तंग आ कर
गौहर-ए-मक़्सद मिले गर चर्ख़-ए-मीनाई न हो
नहीं ये आदमी का काम वाइ'ज़
खुला है जल्वा-ए-पिन्हाँ से अज़-बस चाक वहशत का
याद में ख़्वाब में तसव्वुर में
पीरी की सपेदी है कि मरता हूँ मैं
वो दरिया-बार अश्कों की झड़ी है
हवा-ए-वहशत दिल ले उड़ी कहाँ से कहाँ