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वो दरिया-बार अश्कों की झड़ी है - बयान मेरठी कविता - Darsaal

वो दरिया-बार अश्कों की झड़ी है

वो दरिया-बार अश्कों की झड़ी है

कि हूत-ए-आसमाँ तह में पड़ी है

मिरे अरमाँ बुतों की सर्द-मेहरी

ज़राअत बर्फ़ के पाले पड़ी है

चमन में सर्व का बहरूप भर कर

क़यामत मुंतज़र किस की खड़ी है

दहान-ए-तंग ग़ुंचा पतियाँ लब

हँसी है फूल फ़िक़रा पंखुड़ी है

लगा दी आग किस शो'ला ने बुलबुल

हर इक फूलों की टहनी फुलझड़ी है

निगाह-ए-यास किस की कर गई चोट

कि गर्दन तेग़ की ढलकी पड़ी है

अनासिर जल्द पहुँचा देंगे ता-गोर

निहायत तेज़-रौ ये चौकड़ी है

कफ़न से मुँह लपेटे मेरी हसरत

दिल-ए-वीराँ के कोने में पड़ी है

सिरहाने मुद्दई आया तो जाना

जुदाई की घड़ी सर पर खड़ी है

किसी को पार उतारेगा फ़लक क्या

उसी की नाव चक्कर में पड़ी है

बना ले अक़्ल आग का पुतला फ़लातूँ

कि तलछट कुछ मिरे ख़ुम में पड़ी है

नशा है और हिरन हैं उस की आँखें

नज़र-बाज़ी हिरन की चौकड़ी है

निगाह-ए-शौक़ से सीना चुराया

हमारी चोट तुम से भी कड़ी है

बला-ए-ज़ुल्फ़-ए-मेहमाँ से कहूँ क्या

नहीं टलती मिरे सर आ पड़ी है

स्याही दूर होगी रफ़्ता रफ़्ता

अभी ज़ाहिद की दाढ़ी कड़बड़ी है

सर-ए-महशर बढ़ी है किस क़दर ज़ुल्फ़

क़यामत किस क़दर ओछी पड़ी है

गुहर-बीँ है निज़ाम-उल-मुल्क अपना

तबीअ'त क्या 'बयाँ' क़िस्मत लड़ी है

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