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खुला है जल्वा-ए-पिन्हाँ से अज़-बस चाक वहशत का - बयान मेरठी कविता - Darsaal

खुला है जल्वा-ए-पिन्हाँ से अज़-बस चाक वहशत का

खुला है जल्वा-ए-पिन्हाँ से अज़-बस चाक वहशत का

मैं डरता हूँ कहीं पर्दा न फट जाए हक़ीक़त का

कहाँ ले जाएगा यारब समंद-ए-तुंद वहशत का

कि पीछे रह गया कोसों दोराहा नार-ओ-जन्नत का

ग़ुबार-ए-रंग-ए-पर्रां है फरेरा तेरी रायत का

शिकस्त-ए-क़ल्ब-ए-आशिक़ ग़लग़ला है तेरी नुसरत का

किया है क़स्द किस के कंगुर-ए-ऐवान-ए-रिफ़अ'त का

कि थामा है तिरे नाले ने पाया अर्श-ए-हिम्मत का

झुका दी क़ुदसियों ने बे-तकल्लुफ़ गर्दन-ए-ताअ'त

ज़हे-रुत्बा कफ़-ए-ख़ाक-ए-दर-ए-वाला-ए-दौलत का

खुले किस तरह पर्दा पर्दा-ए-गोश-ए-तहय्युर पर

कि बे-सौत-ओ-सदा है पर्दा साज़-ए-बज़्म-ए-वहदत का

सनम ताक़-ए-हरम से दफ़अ'तन नीचे उतर आए

अदब था बस कि वाजिब दोस्त के क़ासिद के तलअ'त का

हिजाब-ए-तन कसाद-ए-रौनक़-ए-काला-ए-यूसुफ़ है

तरद्दुद क्या है ज़िन्दाँ-ख़ाना-ए-हिज्राँ से हिजरत का

सलातीं को नहीं पाता मिज़ाज उन के फ़क़ीरों का

कि अन्क़ा-ए-फ़लक-परवाज़ है क़ाफ़-ए-क़नाअत का

लब-ए-असनाम हैं क़ंद-ए-सुख़न से सर-ब-मोहर अब तक

ख़मोशी से मज़ा पूछे कोई तेरी फ़साहत का

मज़े मिलते हैं क्या क्या इश्क़ के लज़्ज़त-शनासों को

हमें दामान-ए-ज़ख़्म-ए-दिल एवज़ है ख़्वान-ए-ने'मत का

तिरे हैरत-कदे में फ़र्श है आईना क्या ओ बुत

कि ख़ासान-ए-दर-ए-दौलत को ही खटका है ज़िल्लत का

निगह बे-हिस ख़त-ए-साग़र की सूरत है कि साक़ी ने

दिया है मर्दुम-ए-चश्म-ए-जहाँ को जाम हैरत का

तलाश-ए-जल्वा-ए-मा'नी में टकराया किए सज्दे

न टूटा दस्त-ए-ख़ुश्क-ए-ज़ोहद से बुत-ख़ाना सूरत का

क़यामत-ए-बरहमी डाली तो हिज्राँ की घड़ी गुज़री

ज़मीं है गर्द शीशा आसमाँ शीशा है साअ'त का

बुतों पर लात मारी मेहर-ओ-मह से फेर लीं आँखें

'बयाँ' अल्लाह रे ग़म्ज़ा मिरे हुस्न-ए-अक़ीदत का

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