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दिल उचकेगी कि बिखरी है अड़ी है - बयान मेरठी कविता - Darsaal

दिल उचकेगी कि बिखरी है अड़ी है

दिल उचकेगी कि बिखरी है अड़ी है

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

छुपेगा कब हमारा ख़ून-ए-नाहक़

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

कहीं बाद-ए-सबा आगे न धर ले

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

अदू इस रेस्माँ से सर न चढ़ जाए

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

कमंद इस घात से फेंकी है किस पर

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

किसी का ख़ून-ए-नाहक़ सर न हो जाए

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

जफ़ाएँ मू-ब-मू आती हैं आगे

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

उड़ाया दिल गिरह कतरेगी क्या और

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

ग़ज़ब था सामना तर्क-ए-नज़र का

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

किसी का ख़ून गर्दन पर न चढ़ जाए

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

'बयाँ' कम थी हमारी तीरा-बख़्ती

ये चोटी किस लिए पीछे पड़ी है

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