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बदलने रंग सिखलाए जहाँ को - बयान मेरठी कविता - Darsaal

बदलने रंग सिखलाए जहाँ को

बदलने रंग सिखलाए जहाँ को

कहूँ क्या सुर्मा को वसमा को पाँ को

दिया है दीन-ओ-दिल ताब-ओ-तवाँ को

निगह को ज़ुल्फ़ को तिल को दहाँ को

किया फीका मिरे रश्क-ए-चमन ने

समन को यासमन को अर्ग़वाँ को

मिरे ख़ूँ के निशाँ हैं धो चुके शर्म

जबीं को आस्तीं को आसमाँ को

ख़िराम-ए-मह-विशाँ चक्कर में लाए

ज़माना को ज़मीं को आसमाँ को

तिलिस्म सनअ'त बेचूँ है देखो

कफ़ल को साक़ को मू-ए-मियाँ को

लब-ए-नोशीं ने सिखलाई हलावत

शकर को शहद को क़ंद-ए-कलाँ को

किया रू-पोश शर्म-ए-रू-ए-बुत ने

जिनाँ को चश्मा-ए-हैवाँ को जाँ को

कहाँ हैं अहल-ए-फ़न लाऊँ कहाँ से

'नज़ीरी' को 'ज़ुहूरी' को 'बयाँ' को

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