फ़रहाद किस उम्मीद पे लाता है जू-ए-शीर
फ़रहाद किस उम्मीद पे लाता है जू-ए-शीर
वाँ ख़ून की हवस है नहीं आरज़ू-ए-शीर
है उस जवाँ की बात में अब तो लहू की बास
वे दिन गए कि आती थी उस मुँह से बू-ए-शीर
होते ही सुब्ह आह गया माह-ए-चार-दह
साबित हुआ मुझे कि नमक है अदू-ए-शीर
हसरत ही दिल में कोहकन आख़िर ये ले गया
शीरीं ने अपनी आँखों भी देखा न रू-ए-शीर
उस दूध का ख़ुदा करे कासा हमें नसीब
जन्नत में पंज-तन की जो बहती है जू-ए-शीर
आशिक़ हैं अपने ख़ून-ए-जिगर-ख़्वार ज़हर-नोश
रग़बत तरफ़ शकर के है उन को न सू-ए-शीर
जिन को बग़ैर सई वो शीरीं-दहन मिले
खो दें न कोह वो न करें जुस्तुजू-ए-शीर
मिलते ही उस से दिल की गिरह मेरे खुल गई
उक़दे शकर के जैसे खुलें रू-ब-रू-ए-शीर
फिर दूध की बुढ़ापे में आवे न मुँह से बास
आख़िर कहाँ तलक ये 'बयाँ' गुफ़्तुगू-ए-शीर
(907) Peoples Rate This