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फ़रहाद किस उम्मीद पे लाता है जू-ए-शीर - बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान कविता - Darsaal

फ़रहाद किस उम्मीद पे लाता है जू-ए-शीर

फ़रहाद किस उम्मीद पे लाता है जू-ए-शीर

वाँ ख़ून की हवस है नहीं आरज़ू-ए-शीर

है उस जवाँ की बात में अब तो लहू की बास

वे दिन गए कि आती थी उस मुँह से बू-ए-शीर

होते ही सुब्ह आह गया माह-ए-चार-दह

साबित हुआ मुझे कि नमक है अदू-ए-शीर

हसरत ही दिल में कोहकन आख़िर ये ले गया

शीरीं ने अपनी आँखों भी देखा न रू-ए-शीर

उस दूध का ख़ुदा करे कासा हमें नसीब

जन्नत में पंज-तन की जो बहती है जू-ए-शीर

आशिक़ हैं अपने ख़ून-ए-जिगर-ख़्वार ज़हर-नोश

रग़बत तरफ़ शकर के है उन को न सू-ए-शीर

जिन को बग़ैर सई वो शीरीं-दहन मिले

खो दें न कोह वो न करें जुस्तुजू-ए-शीर

मिलते ही उस से दिल की गिरह मेरे खुल गई

उक़दे शकर के जैसे खुलें रू-ब-रू-ए-शीर

फिर दूध की बुढ़ापे में आवे न मुँह से बास

आख़िर कहाँ तलक ये 'बयाँ' गुफ़्तुगू-ए-शीर

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