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ज़ब्त-ए-ग़म कर भी लिया तो क्या किया - बासित भोपाली कविता - Darsaal

ज़ब्त-ए-ग़म कर भी लिया तो क्या किया

ज़ब्त-ए-ग़म कर भी लिया तो क्या किया

दिल की रग रग से लहू टपका किया

हर तजल्ली आप की तस्वीर थी

इस लिए मैं हर तरफ़ देखा किया

ग़म के शो'ले जान तक सरकश हुए

इश्क़ सोज़-ए-दिल ही को रोया किया

लूट लें सब हुस्न की ख़ुद्दारियाँ

ऐ निगाह-ए-वापसीं ये क्या किया

था तुम्हारे सामने दिल को सुकूँ

फिर जो घबराया तो घबराया किया

शाम-ए-ग़म की बढ़ गईं तारीकियाँ

ऐ चराग़-ए-आरज़ू ये क्या किया

किस से पैमान-ए-मोहब्बत बाँधिए

कौन किस का रास्ता देखा किया

आप से अब क्या कहें इस के सिवा

आप ने जो कुछ किया अच्छा किया

हासिल-ए-ग़म भी मिटा कर रख दिया

ऐ ग़म-बे-हासिली ये क्या किया

तुझ पे ये इल्ज़ाम 'बासित' कम नहीं

प्यार की नज़रों से क्यूँ देखा किया

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