वारफ़्तगी-ए-इश्क़ न जाए तो क्या करें
वारफ़्तगी-ए-इश्क़ न जाए तो क्या करें
तेरा भी अब ख़याल न आए तो क्या करें
ख़ुद शर्म-ए-इश्क़ दिल को मिटाए तो क्या करें
उन तक निगाह-ए-शौक़ न जाए तो क्या करें
मय-ख़्वारियाँ गुनाह सही साक़ी-ए-अज़ल
जब अब्र झूम झूम के आए तो क्या करें
ये दैर वो हरम ये कलीसा वो मय-कदा
अपनी तरफ़ हर एक बुलाए तो क्या करें
मुमकिन है हर ख़याल का दिल से निकालना
तेरा ख़याल आ के न जाए तो क्या करें
माना निगाह-ए-शौक़ रहे एहतियात से
हर जल्वा ख़ुद नज़र में समाए तो क्या करें
'बासित' सितम पे शुक्र-ए-सितम चाहिए मगर
कोई करम से हम को मिटाए तो क्या करें
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