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वारफ़्तगी-ए-इश्क़ न जाए तो क्या करें - बासित भोपाली कविता - Darsaal

वारफ़्तगी-ए-इश्क़ न जाए तो क्या करें

वारफ़्तगी-ए-इश्क़ न जाए तो क्या करें

तेरा भी अब ख़याल न आए तो क्या करें

ख़ुद शर्म-ए-इश्क़ दिल को मिटाए तो क्या करें

उन तक निगाह-ए-शौक़ न जाए तो क्या करें

मय-ख़्वारियाँ गुनाह सही साक़ी-ए-अज़ल

जब अब्र झूम झूम के आए तो क्या करें

ये दैर वो हरम ये कलीसा वो मय-कदा

अपनी तरफ़ हर एक बुलाए तो क्या करें

मुमकिन है हर ख़याल का दिल से निकालना

तेरा ख़याल आ के न जाए तो क्या करें

माना निगाह-ए-शौक़ रहे एहतियात से

हर जल्वा ख़ुद नज़र में समाए तो क्या करें

'बासित' सितम पे शुक्र-ए-सितम चाहिए मगर

कोई करम से हम को मिटाए तो क्या करें

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