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उन का बर्बाद-ए-करम कहने के क़ाबिल हो गया - बासित भोपाली कविता - Darsaal

उन का बर्बाद-ए-करम कहने के क़ाबिल हो गया

उन का बर्बाद-ए-करम कहने के क़ाबिल हो गया

दर्द पहलू में जहाँ भी था वहीं दिल हो गया

बारहा देखा है दिल ने ओ मिरे महव-ए-ख़िराम

हश्र उट्ठा और तिरे क़दमों में शामिल हो गया

दिल जहाँ उछला फ़ज़ा-ए-दो-जहाँ पर छा गया

अर्सा-ए-कौनैन जब सिमटा मिरा दिल हो गया

बे-ख़बर रहना ही अच्छा इस जहान-ए-ग़ैर में

मिट गया जो वाक़िफ़-ए-आदाब-ए-महफ़िल हो गया

जो निगाह-ए-शौक़ उट्ठी हुस्न बन कर रह गई

जो क़दम हम ने उठाया नक़्श-ए-मंज़िल हो गया

या कभी मंज़िल थी मक़्सूद-ए-मज़ाक़-ए-जुस्तुजू

या मज़ाक़-ए-जुस्तुजू मक़्सूद-ए-मंज़िल हो गया

हाए 'बासित' ये मिरे ख़ून-ए-तमन्ना का असर

और भी रंगीन कुछ दामान-ए-क़ातिल हो गया

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